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रसशास्त्र के आचार्य एवं सिद्ध

रसशास्त्र के प्रमुख आचार्य वे विद्वान हैं जिन्होंने इस विज्ञान पर ग्रंथों की रचना की। प्रमुख आचार्यों में नागार्जुन, गोविन्द भागवत, सोमदेव, वाग्भट्ट आदि का नाम आता है। सिद्ध वे रसयोगी हैं जो रसशास्त्र के गूढ़ ज्ञान को जानते थे और इसके माध्यम से धातु कर्म, कीमियागरी (धातुओं का रूपांतरण) तथा शरीर की सिद्धि (दीर्घायु, रोगमुक्ति) प्राप्त कर चुके थे।


रसलिङ्ग निर्माण विधि का संक्षिप्त विवरण

रसलिङ्ग का निर्माण एक अत्यंत जटिल और वैज्ञानिक प्रक्रिया है। आपके द्वारा दिए गए अधिकांश बिंदु इसी प्रक्रिया के चरण हैं।

  1. रसशाला निर्माण (प्रयोगशाला का निर्माण):
    रसकर्म के लिए एक विशेष प्रकार की प्रयोगशाला (रसशाला) का निर्माण किया जाता था। इसे वास्तुशास्त्र के नियमों के अनुसार, शुभ मुहूर्त में, नदी के किनारे या एकांत स्थान पर बनाया जाता था। इसमें भट्टियाँ (चूल्हे), विभिन्न प्रकार के मूषा (क्रुसिबल), संडासी (संदंश) आदि उपकरण रखे जाते थे।
  2. पञ्चमृत्तिका (पाँच प्रकार की मिट्टियाँ):
    रसकर्म में विशेष मिट्टियों का उपयोग होता है। इन्हें पञ्चमृत्तिका कहा जाता है। इनमें शामिल हैं:
    • श्वेत मृत्तिका (सफेद मिट्टी)
    • रक्त मृत्तिका (लाल मिट्टी)
    • पीत मृत्तिका (पीली मिट्टी)
    • कृष्ण मृत्तिका (काली मिट्टी)
    • धूसर मृत्तिका (धूसर/स्लेटी मिट्टी)
      इन मिट्टियों का उपयोग मूषा (क्रुसिबल) बनाने, भट्टी का लेपन करने और अन्य कर्मों में किया जाता था।
  3. मृतलोह परीक्षा (लोहे का मारण/शुद्धिकरण):
    रसलिंग बनाने के लिए लोहे के विशेष संस्कार किए जाते हैं। सीधे साधारण लोहे का प्रयोग नहीं किया जा सकता। इसे मृतलोह बनाया जाता है, यानी विभिन्न औषधियों के साथ बार-बार ताप देकर और कूटकर इसे कोमल, निर्मल और रासायनिक प्रतिक्रिया के लिए उपयुक्त बनाया जाता है। यह एक प्रकार से लोहे का शुद्धिकरण और सक्रियीकरण है।
  4. मित्रपञ्चक (पाँच मित्र धातुएँ):
    रसलिंग निर्माण में पारद के साथ अन्य धातुओं का समिश्रण किया जाता है। इन पाँच धातुओं को मित्रपञ्चक कहा जाता है क्योंकि ये पारद के “मित्र” (सहयोगी) के समान कार्य करती हैं। ये हैं: ताँबा, चाँदी, सीसा, टिन और लोहा। इन सभी धातुओं का भी पहले शुद्धिकरण और मारण (पाउडर के रूप में परिवर्तन) किया जाता है।
  5. धातुसत्त्वलक्षण (धातुओं का सार/अर्क निकालना):
    सत्त्व का अर्थ है किसी धातु का शुद्धतम, सारभूत अंश। जैसे पारे का सत्त्व, तांबे का सत्त्व आदि। धातुओं को विशेष विधियों द्वारा ताप देकर, उनके ऑक्साइड या अन्य यौगिकों के रूप में उनका सत्त्व निकाला जाता था। यह सत्त्व ही रसायन कर्म में प्रयोग होता है।
  6. शुद्धावर्त (शुद्धिकरण की प्रक्रिया):
    यह पारे के शुद्धिकरण की सबसे महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। इसमें पारे को विभिन्न पदार्थों (जैसे नींबू, अदरक, लहसुन के रस, तिल के तेल आदि) के साथ मिलाकर बार-बार खरल में घोटा जाता है और कई बार ताप दिया जाता है। इससे पारे में मौजूद所有的 अशुद्धियाँ (मल, विष) दूर हो जाती हैं और वह कर्म के योग्य बनता है। अष्टसंस्कार में से यह एक प्रमुख संस्कार है।
  7. रसलिङ्ग में स्वर्ण मिलाने का कारण:
    • रासायनिक/चिकित्सीय कारण: माना जाता है कि स्वर्ण (सोना) आयुर्वर्धक है और इसके संस्कार से बना पारद शरीर के लिए अत्यंत लाभकारी, रोगनाशक और ओजवर्धक बन जाता है।
    • आध्यात्मिक/प्रतीकात्मक कारण: स्वर्ण को दिव्य, शुद्ध और देवताओं का प्रतीक माना जाता है। रसलिंग में सोना मिलाने से उसमें दैवीय गुणों का समावेश होता है और यह पूजन के लिए अधिक पवित्र और प्रभावशाली बनता है।

रसलिङ्ग का महत्व और फल

  1. रसलिङ्ग दर्शन का फल:
    शास्त्रों में कहा गया है कि रसलिंग का दर्शन मात्र से व्यक्ति के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। यह अत्यंत पवित्र माना जाता है। इसके दर्शन से मन को शांति मिलती है और आध्यात्मिक लाभ होता है।
  2. रसलिङ्ग के पूजन का फल:
    रसलिंग की पूजा का फल एक साधारण पत्थर के लिंग की पूजा से कहीं अधिक बताया गया है। इसकी पूजा से:
    • मोक्ष की प्राप्ति होती है।
    • आयु, आरोग्य और समृद्धि में वृद्धि होती है।
    • घोर से घोर संकट भी दूर हो जाते हैं।
    • रोगों का नाश होता है (विशेषकर वे रोग जो रसदोष या धातु असंतुलन से होते हैं)।
    • इसे जीवन के सभी चार पुरुषार्थ – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान करने वाला माना गया है।

निष्कर्ष:
आपके द्वारा पूछे गए ये सभी बिंदु प्राचीन भारतीय विज्ञान की एक अद्भुत शाखा “रसशास्त्र” की झलक देते हैं, जहाँ रसायन विज्ञान, धातुकर्म, आयुर्वेद और आध्यात्मिकता का अनूठा संगम देखने को मिलता है। रसलिंग केवल एक पूजा की वस्तु नहीं, बल्कि एक सिद्ध योगी द्वारा विज्ञान और साधना के मेल से तैयार किया गया एक शक्तिशाली रासायनिक-आध्यात्मिक उत्पाद है।